शिकस्त
अभी तो आगाज़ था..
फ़लक पर हुकूमत कर,
अपने ओज से
उसे उजला करने का
सपना भर ही देखा था..
हवा के हल्के थपेड़े ने
ज़मीं पे डाल दिया फिर..
एक शिकस्त से घबराकर,
आँखें
बंद नहीं करनी थीं..
उठकर खुली आँखों से
ख़ुद को,
उड़ते देखना था,
फिर से..
एक शाहीन की तरह..
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