Saturday, November 27, 2010
चल साथी फिर चौपाल चलें..
चल साथी फिर चौपाल चलें..
तेरे कंचे फिर खनकेंगे
मेरा लट्टू फिर घूमेगा
और कबड्डी की पारी में
तन फिर मिटटी को चूमेगा..
उस केसरिया शाम का दामन
आ फिर थाम चलें,
चल साथी फिर चौपाल चलें..
कभी गुरुजी के डर से
कक्षायें हमने छोड़ी थीं,
उस आँगन की चाह में हमने
घर की राहें छोड़ी थीं,
कुछ कटी पतंगे लूटने फिर से
आ चल दौड़ चलें,
चल साथी फिर चौपाल चलें..
सुरजन काका की बाँहों में
सब तकलीफें बिसराते थे,
राजाओं और परियों की कहानी
सुनते सुनते सो जाते थे,
राग बसंती आल्हा गाथा
आ फिर सीख चलें,
चल साथी फिर चौपाल चलें..
उस आँगन की मिट्टी में
कुछ लम्हे हमने बोये थे,
जब पीछे छोड़ा था उनको
सिसकी ले ले वो रोये थे,
पके हुए उन लम्हों को
आ चल तोड़ चलें,
चल साथी फिर चौपाल चलें...
Tuesday, November 23, 2010
शिकस्त
अभी तो आगाज़ था..
फ़लक पर हुकूमत कर,
अपने ओज से
उसे उजला करने का
सपना भर ही देखा था..
हवा के हल्के थपेड़े ने
ज़मीं पे डाल दिया फिर..
एक शिकस्त से घबराकर,
आँखें
बंद नहीं करनी थीं..
उठकर खुली आँखों से
ख़ुद को,
उड़ते देखना था,
फिर से..
एक शाहीन की तरह..
Wednesday, November 17, 2010
विरह के मीठे पल (ग़ज़ल)
इस दिल के ख़ाली गुलशन में
कुछ महक रहे हैं गुल ऐसे,
कुछ अरमाँ उफ़न रहे हैं
कोई सहर उठ रही जैसे ||
कुछ पल ये अंदाज़ नया
मुझको अहसास दिलाता है,
धाराएँ कुछ तन और मन की
कहीं दूर मिल रहीं जैसे ||
कभी विरह के आलम में
ये पल कुछ ऐसा लगता है,
प्यासी धरती पर मेघदूत बन
एक चातक आया जैसे ||
इस पल के ऐसे बीतने पर
एक शीतलता छा जाती है,
इस तन को गरमानी वाली
कोई आग बुझ रही जैसे ||
Saturday, November 13, 2010
रे पंछी उड़ जा
शहर की भागा दौड़ी में,
काहे भूल गया पहचान,
रे पंछी उड़ जा,
तोहे बुलाये तेरा धाम..
बिसरे हैं अब नन्द जसोदा,
बिसरी घर गाम की गलियाँ,
वहां तो सब तौहार थे तेरे,
यहाँ ना वो रंग रलियाँ,
अरे किशन लड़े थे एक कंस से,
यहाँ हज़ारों नाम..
रे पंछी उड़ जा तोहे बुलाये तेरा धाम...
धन दौलत के चक्कर में
अपनों का संग था छूटा,
लोभ कि चटनी संग मिला
हर सख्स यहाँ था झूठा,
अंत समय अब यही सोचता
माया मिली ना राम...
रे पंछी उड़ जा
तोहे बुलाये तेरा धाम..
Thursday, November 11, 2010
दास्तान की खोज
एक नन्हीं सी दास्ताँ थी
कहीं खो गयी,
मैं भी निरा भुलक्कड़
सारे किरदार और
भूमिका भी भूल गया..
शायद,
कोई किसान रहा होगा, विदर्भ का,
या फिर कोई बेरोज़गार, ग़ुमराह, अपराधी युवक..
मुंबई के फुटपाथ पे सोया हुआ
भिखारी भी हो सकता है,
और किसी भ्रष्ट नेता या अफ़सर की कल्पना से भी
इनकार नहीं कर सकते..
लगता है-
सारे हिन्दुस्तान में खोजना पड़ेगा..
Tuesday, November 9, 2010
अनकहे जज़्बात
एकमुश्त, अनगिनत ख़याल उमड़े,
धडकनें तेज़ हुईं,
और दिमाग़ी तार आपस में उलझ गए,
जुबां ने साथ ना दिया,
हाथों ने कलम उठा ली
और उतार दिए सारे जज़्बात काग़ज़ पर,
देखा तो कुछ नज़्में
मेरी डायरी में अठखेलियाँ कर रहीं थीं..
Wednesday, November 3, 2010
संगीत और श्रृंगार
जब मिलती थीं उनसे नज़रें
सातों सुर खिल जाते मन में,
जो अधकच्चे रह जाते थे
वो तड़पाते फिर सपनों में..
इस मन पगले ने ढूँढा है
तुमको हर कवि की कविता में,
संयोग में वो रस मिला नहीं
जो है वियोग की सरिता में..
तुम कभी कभी उस महफ़िल में
मुझको आवाज़ लगाती थी,
जैसे मन के सब तारों को
अपने सुर से झनकाती थी...
अब वीणा को झंकार भी दो
मैं भी कुछ राग लगाऊंगा,
संगीत का दरिया बहने दो
मैं डूब के तर हो जाउंगा...
Tuesday, November 2, 2010
ऑर्डर
कपास के रेशों की तरह
कुछ ख़याल हैं ज़हन में,
ये मन जुलाहा उन्हें साफ़ कर
शफ्फाक़ रुई बना रहा है,
सूत तैयार होते ही बुनेगा..
एक और नज़्म का ऑर्डर आया है !!
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