मेरी अपरिचित श्रंखला के कुछ मोती प्रस्तुत कर रहा हूँ..आशा है पसंद आए. धन्यवाद !!!
एक लौ :
एक नन्ही जोति के मुस्काने पर
सहमी रात भी हंस देती थी,
भटके रही राह पकड़ते
मंज़िल ना खोने देती थी..
एक नीली चादर ओढ़े
पूरब से आई सुबह कदाचित,
फूंक से उसने बुझा दिया
वो राह दिखाती जोति अपरिचित..
देश और द्वेष :
ये जाती धरम के द्वेष भाव
ना कभी सभ्य कहलाते हैं,
भूल गए जो प्रेम की भाषा
उन्हें बहुत उकसाते हैं..
बिसराकर मन की ये गाठें
गर नयी पहल हो जाए कदाचित,
सोने की चिड़िया फिर चहके
जब हो जाए ये द्वेष अपरिचित...
धरा और पर्यावरण :
बढता ताप पिघलते हिमगिर
मौसम भी चाल बदल जाते हैं,
कुछ सन्देश, बिना भाषा के
ज्ञान चक्षु ही पढ़ पाते हैं..
पशु पक्षी तो मतिविहीन जब
इंसां ने भी गँवा दिया चित्त,
जीवन को परिभाषित करती
हो ना जाए धरा अपरिचित...
भावों की सुन्दर प्रस्तुति. word verification हटा दें तो कमेंट्स देने में सुविधा रहेगी
ReplyDeleteDhnayavaad sir. word varification hata diya gaya hai.
ReplyDeleteबहुत खूब, सारी परेशानियों को इस नए काव्यात्मक अंदाज़ में पढ़कर अच्छा लगा.
ReplyDeleteकवि का दिल बड़ा अनमोल !