स्वेटर
ठिठुरते पावों
और सर्द जिस्म को गर्माहट देती थी
जाड़े की सुनहरी धूप..
माँ घर के काम ख़त्म करके
हर रोज़
इसी धूप में छत पे
स्वेटर बुनती थी,
हर साल, एक रस्म की तरह..
मेरी पीठ पे आधे बुने धागों को रखकर
नाप लिया करती थी..
और फिर नए बुने स्वेटर को
फ़क्र से पहन के निकलते थे..
अभी..गरम कपड़ों को तलाशते
माँ का बुना एक स्वेटर हाथ में आया,
जिस्म पे रखते ही
फिर उसी ममतामयी स्पर्श का
अहसास हो आया,
जाड़े की सुनहरी धूप के जैसा..
बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति..माँ की याद भूलना बहुत मुश्किल होता है
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