Monday, May 21, 2012

काली गठरी रात की


वो गुज़री शाम का दामन
पकड़कर रात आयी है,
उजाले के टुकड़े
बचे हुए कुछ  
पड़े थे ज़मीन पर,
समेटने उन्हें
ये काली गठरी लिए आयी है..
गुजारिश  है तुझसे 
ऐ शब् !!
ज़रा झलका दे ये गठरी 
गिरा दे एक  टुकड़ा 
उजाले का मेरे दिल में,
अरसे से वहां 
अँधेरे बहुत हैं...


17 comments:

  1. वाह.........................
    सुंदर....
    अति सुंदर.....

    देर आये दुरुस्त आये....
    :-)

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  2. ज़रा झलका दे ये गठरी
    गिरा दे एक टुकड़ा
    उजाले का मेरे दिल में,
    अरसे से वहां
    अँधेरे बहुत हैं...

    bahut khoob...!

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  3. ज़रा झलका दे ये गठरी
    गिरा दे एक टुकड़ा
    उजाले का मेरे दिल में,
    अरसे से वहां
    अँधेरे बहुत हैं...बहुत ही खुबसूरत ख्यालो से रची रचना......

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  4. ज़रा झलका दे ये गठरी
    गिरा दे एक टुकड़ा
    उजाले का मेरे दिल में,
    अरसे से वहां
    अँधेरे बहुत हैं...
    वाह ...बहुत खूब लिखा है ... आपने

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  5. concluding lines r awesome !!!
    intense n full of meaning

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  6. बहुत सुंदर रचना ...बधाई

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  7. आभार संगीता जी...... :)

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  8. वाह!!! बहुत खूब लिखा है आपने....

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  9. बहुत खूब ! सुन्दर भावमयी रचना...

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  10. ऐ शब् !!
    ज़रा झलका दे ये गठरी
    गिरा दे एक टुकड़ा
    उजाले का मेरे दिल में,
    अरसे से वहां
    अँधेरे बहुत हैं...
    ..बहुत सुन्दर ....

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  11. bahut hi sundar bhavmay karati rachana...
    ज़रा झलका दे ये गठरी
    गिरा दे एक टुकड़ा
    उजाले का मेरे दिल में,
    अरसे से वहां
    अँधेरे बहुत हैं...
    ye panktiya to bahut hi behtarin hai...

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  12. उजाले का मेरे दिल में,
    अरसे से वहां
    अँधेरे बहुत हैं...
    हर शब्‍द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्‍यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।

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