Friday, June 10, 2011

रोशनदान



रोशनदान से गिरा
वो रौशनी का धब्बा,
जो बाहर की दुनियां के
उजलेपन का अक्श था,
कमरे के अँधेरे को
छन से मिटा गया...
कभी दिल में अँधेरा होगा
तब उसी उजले धब्बे को याद करूंगा,
कोई रोशनदान खोलूँगा,
शायद रोशनी नसीब हो..

4 comments:

  1. बस यही सोच बनी रहे।

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  2. वाह ! बिरजू जी,
    इस कविता का तो जवाब नहीं !
    विचारों के इतनी गहन अनुभूतियों को सटीक शब्द देना सबके बस की बात नहीं है !

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  3. हर शब्‍द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्‍यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।

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