Tuesday, February 22, 2011

उन्माद



कुछ बदलता वक़्त,
कुछ जज़्बातों की उफ़ान
की अब,
सपनों की गहराइयाँ कम,
और मंजिलें
छोटी लगती हैं..
हर कदम
एक आस जगाता है,
हर लम्हा ये मन
एक और कदम
चलने को मचलता है..
अरे, अभी सांस है,
चलता रह,
मंज़िल क़रीब है
गर आस है...

5 comments:

  1. 'चलता रह

    मंजिल करीब है

    गर आस है'

    आशा ही जीवन है ....प्रेरक रचना

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  2. सही बात …………सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  3. अरे, अभी सांस है,
    चलता रह,
    मंज़िल क़रीब है
    गर आस है..

    बहुत सुन्दर प्रेरक रचना..

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  4. धन्यवाद... सुरेन्द्र जी,वंदना जी, कैलाश सर..

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  5. कोमल भावों से सजी ..
    ..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती

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