Saturday, February 12, 2011

हिजरां


कुछ बारीक सी उमस थी आँखों में,
कुछ तुम्हारे दमकते चेहरे की रौशनी,
तुम्हें देख ना सका
जी भरने तक...

बहुत बड़ा पैमाना था
इस बेमेहर हिजरां का, 

आतश की तरह जला था                           
इसे पीकर
हर पल, हर शब..                          
           

अब जाने ना देना
अपनी आगोश से,
वरना दुनियां एक और
शराबी को देखेगी,
आतश की तरह जलते
पैमाने में डूबे हुए...


(बेमेहर= निर्दयी, हिजरां = जुदाई, आतश = आग, शब = रात)

5 comments:

  1. वाह ! बेहद खूबसूरती से कोमल भावनाओं को संजोया इस प्रस्तुति में आपने ...

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  2. सोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना ! सादर !

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  3. मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जो मार्ग की शोभा बढ़ाता है, पथिकों को गर्मी से राहत देता है तथा सभी प्राणियों के लिये प्राणवायु का संचार करता है। वर्तमान में हमारे समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित है। हमारी अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं तथा अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। दैनंदिन हमारी संख्या घटती जा रही है। हम मानवता के अभिन्न मित्र हैं। मात्र मानव ही नहीं अपितु समस्त पर्यावरण प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः मुझसे सम्बद्ध है। चूंकि आप मानव हैं, इस धरा पर अवस्थित सबसे बुद्धिमान् प्राणी हैं, अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि हमारी रक्षा के लिये, हमारी प्रजातियों के संवर्द्धन, पुष्पन, पल्लवन एवं संरक्षण के लिये एक कदम बढ़ायें। वृक्षारोपण करें। प्रत्येक मांगलिक अवसर यथा जन्मदिन, विवाह, सन्तानप्राप्ति आदि पर एक वृक्ष अवश्य रोपें तथा उसकी देखभाल करें। एक-एक पग से मार्ग बनता है, एक-एक वृक्ष से वन, एक-एक बिन्दु से सागर, अतः आपका एक कदम हमारे संरक्षण के लिये अति महत्त्वपूर्ण है।

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  4. जिहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफुल
    दुराये नैना बनाए बतियाँ
    कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ
    ना लहो काहे लगाए छतियाँ


    ख़ुसरो साहब का ये कलाम याद आ गया आपकी नज़्म पढ़ के... :)

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  5. @ भास्कर जी, ऋचा जी - हौसला अफजाई का शुक्रिया..

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