Saturday, September 24, 2011

याद पुरानी


वक़्त रेत की सकल बनाकर
मुट्ठी से यूँ निकल गया,
दाना चुंग मेरे आँगन से
कोई पंछी गुजर गया...

कभी पतंगों के पीछे
गाँव की गलियां छानी थीं,
ठंडी बारिश के ओले खाकर
हमने की मनमानी थी...

शाम ढले कुछ जुगनूं उड़कर
हमको बहुत लुभाते थे,
रात सितारों के नीचे बाबा
किस्से हमें सुनाते थे..

आज ये बारिश गीली भर है
ओले सारे सूख गए,
बाबा की बस याद रह गयी
जुगनूं बुझकर डूब गए...

5 comments:

  1. उफ़ …………मार्मिक चित्रण कर दिया।

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  2. खुबसूरत रचना.... सुन्दर चित्र के साथ.....

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  3. बाबा की बस याद रह गयी
    जुगनूं बुझकर डूब गए...

    bhai kya kahane birju babu .....maja aa gya ....bhaut hi sundar pravishti....badhai ke sath hi abhar.

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