बिख़री शाम
शाम आज,
कुछ बिख़री हुई,
ताने दे रही है..
अलसायी दोपहर,
दूर से,
आँखों में भरी नींद को,
खींचे जाती है..
सूखी घास को,
ओस की नन्हीं बूंदों का,
इंतज़ार है...
आँख खोलूं,
बिख़री शाम को,
जोड़ना है...
फिर गीली घास पर,
नंगे पाँव चलकर,
रात की दुल्हन का,
स्वागत करूंगा...
सुन्दर रचना।
ReplyDeletejibant rachna
ReplyDeleteधन्यवाद. :)
ReplyDeleteआपकी रचनाओं में एक अलग अंदाज है,
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