
आज होकर इस जहाँ से, जा रहा हूँ मैं अपरिचित,
जब जिया तब था अपरिचित , ख़ुद से और संसार से ।
जिस ज़मीं को जानता था , जिस धरम को मानता था ,
चाहता था मैं जिन्हें वो लोग भी अब हैं अपरिचित ।
अग्नि धरा आकाश से , वायु और जल की प्यास से ,
था बना कण कण जो मेरा , आज वो कण भी अपरिचित ।
मिट्टियों में खेलता था , उघरे बदन मैं दौड़ता था ,
कल्पनाओं का समंदर , आज वो बचपन अपरिचित ।
माँ की ममता ने सिखाया , गुरुजनों ने भी बताया ,
ढाई अक्षर से बना , वो प्रेम भी अब है अपरिचित ।
भूल और संज्ञान में , जो किए मैंने करम ,
उनका फल ले कर जहाँ से, जा रहा हूँ मैं अपरिचित ।
जब जिया तब था अपरिचित , ख़ुद से और संसार से ।
जिस ज़मीं को जानता था , जिस धरम को मानता था ,
चाहता था मैं जिन्हें वो लोग भी अब हैं अपरिचित ।
अग्नि धरा आकाश से , वायु और जल की प्यास से ,
था बना कण कण जो मेरा , आज वो कण भी अपरिचित ।
मिट्टियों में खेलता था , उघरे बदन मैं दौड़ता था ,
कल्पनाओं का समंदर , आज वो बचपन अपरिचित ।
माँ की ममता ने सिखाया , गुरुजनों ने भी बताया ,
ढाई अक्षर से बना , वो प्रेम भी अब है अपरिचित ।
भूल और संज्ञान में , जो किए मैंने करम ,
उनका फल ले कर जहाँ से, जा रहा हूँ मैं अपरिचित ।