Saturday, April 9, 2011

बिख़री शाम



शाम आज,
कुछ बिख़री हुई,
ताने दे रही है..
अलसायी दोपहर,
दूर से,
आँखों में भरी नींद को,
खींचे जाती है..
सूखी घास को,
ओस की नन्हीं बूंदों का,
इंतज़ार है...
आँख खोलूं,
बिख़री शाम को,
जोड़ना है...
फिर गीली घास पर,
नंगे पाँव चलकर,
रात की दुल्हन का,
स्वागत करूंगा...