Tuesday, October 26, 2010

ना सोया ना जागा हूँ...


ये उजला सा अँधेरा क्यूँ है,
फलक जगमगा रहा है
अमावस की रात की तरह,
मगर क्यों कोई तारा नहीं टिमटिमा रहा,
बस कुछ अजीब सी बुलबुलों जैसी आकृतियाँ,
जैसे किसी पेशेवर चित्रकार ने
तमाम ज्योमेट्री का ज्ञान एक स्याह कागज़ पे उड़ेल दिया हो,
एक दूसरे से टकराकर, इधर उधर भाग रही हैं,
जिसको देखने की कोशिश करो,
वो दुगुनी तेज़ी से उसी दिशा में भाग जाती है..
सोच रहा हूँ कोई सपना है,
मगर मैं सोया नहीं हूँ..

ज़रा हटा तो अपनी जुल्फों के बादल,
हकीक़त का सूरज देखना है....

Sunday, October 24, 2010

अफसानों की तलाश


कुछ और भी होंगे अफ़साने
कहीं दबे हुए,
अनगिनत ख़यालों और कुछ अनछुए पहलुओं को-
ख़ुद में समेटे हुए,
शायद कहीं अँधेरी गलियों के नुक्कड़ों पे
मिल जाएँ...
चलो ढूंढते हैं !!!

Friday, October 22, 2010

- क़लम और चांदनी -

देर कर दी आज,
चाँद ने उफ़क से उठने में,
पूछना था मुझे-
की ऐसा क्या है उसकी शफ्फाक चांदनी में,
जो दिन के सारे ग़मों को छानकर
मेरी क़लम की आहट को
ख़ुशनुमा कर देती है..
और
हर नज़्म इसमें धुलकर,
शब के अँधेरे अहसास को-
बहा ले जाती है..

आज चाँद ने उठने में देर कर दी,
क्योंकि,
आज मेरी क़लम ने-
ग़म और उदासी भरा दरिया बहाया है....

Friday, October 15, 2010

ये मन आवारा पंछी


इस मन आवारा पंछी का,
हर डाल बसेरा होता है,
कभी तो मंज़िल पाता है,
पर कभी ये सब कुछ खोता है..
इस मन आवारा पंछी का, हर डाल बसेरा होता है...


क्यूँ भटक रहा उन गलियों में,
जो अँधेरी सुनसान सी हैं,
क्यूँ बात ये ऎसी पूछ रहा,
जो सबके लिए अनजान सी है,
जब ऐसे हों हालात तो क्या, कभी सवेरा होता है,
इस मन आवारा पंछी का, हर डाल बसेरा होता है...


कोई दर्द रहा होगा ऐसा,
हर वक़्त इसे तड़पाता है,
शायद कोई शख्स रहा होगा,
जो इसे बहुत ही भाता है,
उन भूली बिसरी यादों को जब, ढूँढने निकला होता है,
इस मन आवारा पंछी का, हर डाल बसेरा होता है...